Lekhika Ranchi

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प्रेमाश्रम--मुंशी प्रेमचंद

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नौ बज चुके थे। प्रकृति कुहरे के सागर में डूबी हुई थी। घरों के द्वार बन्द हो चुके थे। अलाव भी ठण्डे हो गये थे। केवल सुक्खू चौधरी के कोल्हाड़े में गुड़ पक रहा था। कई आदमी भट्ठे के सामने आग ताप रहे थे। गाँव की गरीब स्त्रियाँ अपने-अपने घड़े लिये गरम रस की प्रतीक्षा कर रही थीं। इतने में मनोहर आकर सुक्खू के पास बैठ गया। चौधरी अभी चौपाल से लौटे थे और अपने मेलियों से दरोगा जी की सज्जनता की प्रशंसा कर रहे थे। मनोहर को देखते ही बात बदल दी और बोले– आओ मनोहर, बैठो। मैं तो आप ही तुम्हारे पास आने वाला था। कड़ाह की चासनी देखने लगा। इन लोगों को चासनी की परख नहीं है। कल एक पूरा ताव बिगड़ गया। दरोगा जी तो बहुत मुह फैला रहे हैं। कहते हैं, सबसे मुचलका लेंगे। उस पर सौ की थैली अलग माँगते हैं। हाकिमों के बीच में बोलना जान जोखिम है। जरा-सी सुई का पहाड़ हो गया। मुचलका का नाम सुनते ही सब लोग थरथरा रहे हैं, अपने-अपने बयान बदलने पर तैयार हो रहे हैं।

मनोहर– तब तो बल्लू के फँसने में कोई कसर ही न रही?

सुक्खू– हाँ बयान बदल जायेंगे तो उसका बचना मुश्किल है। इसी मारे मैंने अपना बयान न दिया था। खाँ साहब बहुत दम-भरोसा देते रहे, पर मैंने कहा, मैं न इधर हूँ, न उधर हूँ। न आप से बिगाड़ करूँगा, न गाँव से बुरा बनूँगा। इस पर बुरा मान गये। सारा गाँव समझता है कि खाँ साहब से मिला हुआ हूँ, पर कोई बता दे कि उनसे मिलकर गाँव की क्या बुराई की? हाँ, उनके पास उठता-बैठता हूँ इतने से ही जब मेरा बहुत-सा काम निकलता है तब व्यवहार क्यों तोड़ूँ? मेल से जो काम निकलता है वह बिगाड़ करने से नहीं निकलता हमारा सिर ज़मींदार के पैरों तले रहता है। ऐसे देवता को राजी रखने ही में अपनी भलाई है।

मनोहर– अब मेरे लिए कौन-सी राह निकालते हो?

सूक्खू– मैं क्या कहूँ गाँव का हाल तो जानते ही हो। तुम्हारी खातिर कोई न मानेगा। बस, या तो भगवान का भरोसा है या अपनी गाँठ का।

मनोहर ने सुक्खू से ज्यादा बातचीत नहीं की। समझ गया कि यह मुझे मुड़वाना चाहते हैं। कुछ दरोगा को देंगे, कुछ गौस खाँ के साथ मिलकर आप खा जायेंगे। इन दिनों उसका हाथ बिलकुल खाली था। नई गोली लेनी पड़ी, सब रुपये हाथ से निकल गये। खाँ साहब ने सिकमी खेत निकाल लिए थे। इसलिए रब्बी की भी आशा कम थी। केवल ऊख का भरोसा था लेकिन बिसेसर साह के रुपये चुकाने थे और लगान भी बेबाक करना था। गुड़ से इससे अधिक और कुछ न हो सकता था दूसरा ऐसा कोई महाराज न था जिससे रुपये उधार मिल सकते। वह यहाँ से उठकर डपटसिंह के घर की ओर चला, पर अभी तक कुछ निश्चय न कर सका था कि उनसे क्या कहूँगा। वह भटके हुए पथिक की भाँत एक पगड़ंडी पर चला जा रहा था, बिलकुल बेखबर कि यह रास्ता मुझे कहाँ लिये जाता है, केवल इसलिए कि एक जगह खड़े रहने से चलते रहना अधिक सन्तोषप्रद था। क्या हानि है, यदि लोग मुचलक देने पर राजी हो जायें। यह विधान इतना दूरस्थ था कि वहाँ तक उसका विचार भी न पहुँच सकता था।

डपटसिंह के दालान में एक मिट्टी के तेल की कुप्पी जल रही थी। भूमि पर पुआल बिछी हुई थी और कई आदमी लड़के एक मोटे टाट का टुकड़ा ओढ़े, सिमटे पड़े थे। एक कोने में कुतिया बैठी हुई पिल्लों को दूध पिला रही थी। डपटसिंह अभी सोये न थे। सोच रहे थे कि सुक्खू के कोल्हाड़े से गर्म रस आ जाय तो पीकर सोए। उनके छोटे भाई झपटसिंह कुप्पी के सामने रामायण लिये आँखें गड़ा-गड़ा कर पढ़ने का उद्योग कर रहे थे। मनोहर को देखकर बोले, आओ महतो, तुम तो बड़े झमेले में पड़ गये।

मनोहर– अब तो तुम्हीं लोग बचाओ तो बच सकते हैं।

डपट– तुम्हें बचाने के लिए हमने कौन-सी बात उठा रखी? ऐसा बयान दिया कि बलराज पर कोई दाग नहीं आ सकता था, पर भाई मुचलका तो नहीं दे सकते। आज मुचलका दे दें, कल को गौस खाँ झूठो कोई सवाल दे दे तो सजा हो जाय।

मनोहर– नहीं भैया, मुचलका देने को मैं आप ही न कहूँगा डपटसिंह मनोहर के सदिच्छुक थे, पर इस समय उसे प्रकट न कर सकते थे। बोले, परमात्मा बैरी को भी कपूत सन्तान न दे। बलराज ने कील झूठ-मूठ बतबढ़ाव न किया होता तो तुम्हें क्यों इस तरह लोगों की चिरौरी करनी पड़ती।

हठात् कादिर खाँ की आवाज यह कहते हुए सुनाई दी, बड़ा न्याय करते हो ठाकुर, बलराज ने झूठ-मूठ बतबताव किया था तो उसी घड़ी में डाँट क्यों न दिया? तब तो तुम भी बैठे मुस्कराते रहे और आँखों से इस्तालुक देते रहे। आज जब बात बिगड़ गई है तो कहते हो झूठ-मूठ बतबढ़ाव किया था। पहले तुम्हीं ने अपनी लड़की का रोना-रोया था, मैंने अपनी रामकहानी कही थी। यही सब सुन-सुन कर बलराज भर बैठा था। ज्यों ही मौका मिला, खुल पड़ा। हमने और तुमने रो-रोकर बेगार की, पर डर के मारे मुँह न खोल सके। वह हिम्मत का जवान है, उससे बरदास न हुई। वह जब हम सभी लोगों की खातिर आगे बढ़ा तो यह कहाँ का न्याय है कि मुचलके के डर से उसे आग में झोंक दें?

डपटसिंह ने विस्मित होकर कहा– तो तुम्हारी सलाह है कि मुचलका दे दिया जाय?

कादिर– नहीं मेरी सलाह नहीं है। मेरी सलाह है कि हम लोग अपने-अपने बयान पर डटे रहें। अभी कौन जानता है कि मुचलका देना ही पड़ेगा। लेकिन अगर ऐसा हो तो हमें पीठ न फेरनी चाहिए। भला सोचो, कितना बड़ा अन्धेर है कि हम लोग मुचलके के डर से अपने बयान बदल दें। अपने ही लड़के को कुएँ में ढकेल दें।

मनोहर ने कादिर मियाँ को अश्रुपूर्ण नेत्रों से देखा। उसे ऐसा जान पड़ा मानो यह कोई देवता है। कादिर की सम्मति जो साधारण न्याय पर स्थिर थी, उसे अलौकिक प्रतीत हुई। डपटसिंह को भी यह सलाह सयुक्तिक ज्ञात हुई। मुचलके की शंका कुछ कम हुई। मन में अपनी स्वार्थपरता पर लज्जित हुए, तिस पर भी मन से यह विचार न निकल सका कि प्रस्तुत विषय का सारा भार बलराज के सिर है। बोले-कादिर भाई, यह तो तुम नाहक कहते हो कि मैंने बलराज को इस्तालुक दिया। मैंने बलराज से कब कहा कि तुम लस्कर वालों से तूलकलाम करना। यह रार तो उसने आप ही बढ़ायी। उसका स्वभाव ही ऐसा कड़ा ठहरा। आज को सिपाहियों से उलझा है, कल को किसी पर हाथ ही चला दे तो हम लोग कहाँ तक उसकी हिमायत करते फिरेंगे?

कादिर– तो मैं तुमसे कब कहता हूँ कि उसकी हिमायत करो। वह बुरी राह चलेगा तो आप ठोकर खाएगा। मेरा कहना यही है कि हम लोग अपनी आँखों की देखी और कानों की सुनी बातों में किसी के भय से उलट-फेर न करें। अपनी जान बचाने के लिए फरेब न करें। मुचलके की बात ही क्या, हमारा धरम है कि अगर सच कहने के लिए जेहल भी जाना पड़े तो सच से मुँह न मोड़ें।

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1 Comments

Gunjan Kamal

18-Apr-2022 05:27 PM

👏👌👌🙏🏻

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